बच्चे…शिक्षा और ज्ञान

जैसे एक मकान का आधार अर्थात नींव मजबूत होने पर भविष्य के लिए निश्चिंतता मिल जाती है वैसे ही हमारे जीवन में शिक्षा भविष्य के लिए नींव का कार्य करती है और केवल अर्थोपार्जन के लिए ही नहीं बल्कि व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र के विकास के लिए शिक्षा एक आधार का कार्य करती है। वर्तमान में हर एक माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का पूर्ण प्रयास करते है पर हम अपने आस-पास बहुत से उदाहरण देखते है जहाँ कुछ बच्चे सरलता से शिक्षा पूर्ण करलेते हैं और कुछ को शिक्षा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है, कुछ बच्चे बुद्धिमान होने पर भी पढाई में मन नहीं लगा पाते तो कुछ अधिक बुद्धिमान न होने पर भी अपनी शिक्षा को पूरा कर लेते हैं, वास्तव में हमारी कुंडली में बने ग्रह-योग जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करते हैं जिससे हम लाभान्वित हो सकते हैं
” जन्मकुंडली का पांचवा भाव हमारे ज्ञान, शिक्षा, और बुद्धि को दर्शाता है। बृहस्पति , ज्ञान , शिक्षा और विवेक का नैसर्गिक कारक है। बुध बुद्धि और कैचिंग-पावर का कारक होता है तथा चन्द्रमाँ मन की एकाग्रता को नियंत्रित करता है अतः कुंडली में पंचम भाव, बृहस्पति, और बुध की स्थिति शिक्षा को नियंत्रित करती है तथा चन्द्रमाँ की इसमें सहायक भूमिका होती है” –
1. पंचम भाव- पंचम भाव हमारी शिक्षा और ज्ञान का भाव होता है, यदि पंचमेश केंद्र, त्रिकोण आदि शुभ भावों में हो, स्व , उच्च , मित्र राशि में हो पंचम भाव पाप प्रभाव से मुक्त हो शुभ ग्रह पंचम भाव और पंचमेश को देखते हों तो शिक्षा अच्छी होती है परन्तु यदि पंचमेश दुःख भाव(6,8,12) में हो अपनी नीच राशि में बैठा हो पंचम भाव में पाप-योग बना हो, षष्टेश, अष्टमेश, द्वादशेश पंचम भाव में हो या पंचम भाव में कोई पाप ग्रह अपनी नीच राशि में बैठा हो तो ऐसे में शिक्षा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है या संघर्ष के बाद शिक्षा पूरी होती है।
2. बृहस्पति – बृहस्पति ज्ञान और शिक्षा का कारक ग्रह है अतः कुंडली में बृहस्पति का शुभ भावों (केंद्र, त्रिकोण आदि) में होना स्व, उच्च, मित्र राशि में बैठना अच्छी शिक्षा दिलाता है और व्यक्ति विवेकशील होता है। परन्तु बृहस्पति का दुःख-भाव(6,8,12) में जाना अपनी नीच राशि(मकर) में बैठना, राहु से पीड़ित होना या अन्य प्रकार से कमजोर होना शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति में बाधक होता है।
3. बुध – बुध ग्रह का आज के समय में बड़ा महत्व है क्योंकि बुद्ध हमारी बुद्धि क्षमता को नियंत्रित करता है अतः शिक्षा पक्ष में बुध का मजबूत होना बहुत शुभ होता है यदि कुंडली में बुध अपनी उच्च राशि स्व राशि में हो तो व्यक्ति बुद्धिमान और तर्क-कुशल होता है ऐसा जातक किसी भी बात को बहुत जल्दी समझ लेता है और उसकी स्मरणशक्ति भी अच्छी होती है। बलि बुध वाला व्यक्ति तार्किक विषयों में बहुत आगे निकलता है। परन्तु यदि बुध नीच राशि(मीन) में हो, दुःख-भाव(6,8,12) में हो, केतु के साथ हो तो ये स्थितियां भी शिक्षा में बाधक होती हैं।
4. चन्द्रमाँ – चन्द्रमाँ का शिक्षा से सीधा सम्बन्ध तो नहीं है परन्तु हमारे मन की एकाग्रता को चन्द्रमाँ ही नियंत्रित करता है अतः जिन जातकों की कुंडली में चन्द्रमाँ शुभ स्थिति में हो उनका मन स्थिर रहता है परन्तु यदि कुंडली में चन्द्रमाँ नीच राशि(वृश्चिक) में हो, दुःख भाव में हो या राहु , शनि से पीड़ित हो ऐसे व्यक्ति का मन सदैव अस्थिर रहता है , एकाग्रता नहीं बन पाती, जमकर किसी काम को नहीं कर पाते जिससे शिक्षा में रुकावटें आती है और जातक बुद्धिमान होने पर भी शिक्षा में पीछे रह जाता है।
अतः उपरोक्त घटकों के आधार पर हम जातक के जीवन में शिक्षा की स्थिति या शिक्षा में आने वाली बाधाओं के कारण को समझकर उसका समाधान निकाल सकते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य –
1. जिन बच्चों की कुंडली में बुध कमजोर होता है उन्हें गणनात्मक विषयों में समस्याएं आती हैं। ऐसे बच्चों की हैंड-राइटिंग भी अच्छी नहीं होती। ऐसे बच्चों का उच्चारण भी अक्सर गलत होजाता है।
उपाय – गणेश जी की पूजा करें , बुधवार को गाय को हरा चारा खिलाएं , ॐ बुम बुधाय नमः का जाप करें।
2. जिन बच्चों की कुंडली में बृहस्पति कमजोर होता है वो व्याकरण(ग्रामर) में कमजोर होते है। ऐसे बच्चों की स्वविवेक क्षमता कम होती है तथा मैच्योरिटी कम होती है।
उपाय – ॐ बृम बृहस्पते नमः का जाप करें, गाय को भीगी चने की दाल खिलाएं, केले के पेड़ में जल दें।
3. जिन बच्चों की कुंडली में चन्द्रमाँ कमजोर हो तो ऐसे बच्चे पढाई में मन नहीं लगा पाते उनकी एकाग्रता कमजोर होती है।
उपाय – ॐ सोम सोमाय नमः का जाप करें, शिवलिंग का अभिषेक करें, सफ़ेद चन्दन का तिलक लगायें।

वास्तु का ज्योतिष से सम्बन्ध..YATIN S UPADHYAY

 

 

वास्तु और ज्योतिष का एक अटूट सम्बन्ध है हम अपनी जन्म कुंडली से अपने घर का वास्तु जान सकते है और उन दोषों का निदान भी कर सकने में सक्षम है.

वास्तु और ज्योतिष का समबन्ध एक प्रकार का शरीर और भवन का साहचर्य भी कह सकते है। जिस प्रकार जीवात्मा का निवास शरीर में और हमारा भवन में होता है

उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र में भी भवन का कारक चतुर्थ भाव जो हृदय का भी कारक है इन दोनों के संबंध में घनिष्टता स्पष्ट करता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा अगम सदृश और दक्षिण और पश्चिम दिशा अंत सदृश है। ज्योतिष अनुसार पूर्व दिशा में सूर्य एवं उत्तर दिशा में प्रसरणशील बृहस्पति का कारक तत्व है।

उसके अनुसार उत्तर एवं पूर्व में अगम दिशा के तौर पर पश्चिम में शनि समान मंगल पाप ग्रह की प्रबलता है। पश्चिम में शनि समान आकुंचन तत्व की महत्ता है। उस गणना से दक्षिण-पश्चिम अंत सदृश दिशाएं हैं। इस आलेख के अनुसार यह समझाने का प्रयास किया गया है कि वास्तु एवं ज्योतिष एक सिक्के के पहलू हैं।

जैसे प्रत्येक ग्रह की अपनी एक प्रवृत्ति होती है। उसी के अनुसार वह फल करता है। यदि शुभ ग्रह शुभ भाव में विराजमान होगा तो वहां सुख समृद्धि देगा।

अशुभ ग्रह शुभ स्थान पर अशुभ फल प्रदान करेगा।

बृहस्पति- खुली जगह, खिड़की, रोशनदान, द्वार, कलात्मक व धार्मिक वस्तुएं।

चंद्रमा- बाहरी वस्तुओं की गणना देगा।

शुक्र- कच्ची दीवार, गाय, सुख समृद्धि वस्तुएं।

मंगल- खान-पान संबंधित वस्तुएं।

बुध- निर्जीव वस्तुएं, शिक्षा संबंधी।

शनि- लोहा लकड़ों का सामान।

राहु- धूएं का स्थान, नाली का गंदा पानी, कबाड़ा।

केतु- कम खुला सामान।

इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की जन्मकुंडली के अनुसार ज्ञात किया जा सकता है

कि उसके भवन में किस प्रकार का निर्माण है।

कालपुरुष की कुंडली में जहां पाप ग्रह विद्यमान हैं

और वह निर्माण वास्तु सम्मत नहीं है तो उक्त निर्माण उस जातक को कष्ट देगा।

1.लग्नेश लग्न में (शुभ ग्रह) हो तो पूर्व में खिड़कियां।

  1. लग्नेश का लग्न में नीच, पीड़ित होना- पूर्व दिशा के दोष को दर्शायेगा। जातक मष्तिक से पीड़ित रहेगा। देह सुख नहीं प्राप्त होगा।
  2. लग्नेश का 6, 8, 12वें में पीड़ित होना पूर्व दिशा में दोष करता है।
  3. षष्ठेश लग्न में हो तो- पूर्व में खुला मगर आवाज, शोर शराबा आदि ।
  4. लग्नेश तृतीय भाव में-ईशान्य कोण में टूट-फूट-ईट, का निर्माण आदि।
  5. राहु-केतु की युति उस ग्रह संबंधी दिशा में दोष उत्पन्न करती है।
  6. एकादश, द्वादश में पाप ग्रह, षष्ठेश, अष्टमेश के होने के कारण ईशान में दोष कहें।
  7. जहां-जहां शुभ ग्रह होंगे वहां-वहां खुलापन हवा व प्रकाश की उचित व्यवस्था होगी।
  8. यदि शुभ ग्रह दशम भाव में होंगे तो वहां पर खुला स्थान होगा।

इसी प्रकार शुभाशुभ निर्माण को हम जन्म पत्रिका से जान लेते हैं।

अशुभ निर्माण कालपुरुष के अंगों को प्रभावित करके गृहस्वामी को कष्ट देता है। उक्त भाव संबंधी लोगों को कष्ट देगा।

  1. तृतीय भाव पीड़ित हो तो- भाई-बहन को कष्ट।
  2. चतुर्थ भाव व चतुर्थेश पीड़ित हो तो- मां को कष्ट।
  3. सप्तम-नवम् भाव पीड़ित हो तो- पत्नी पिता को कष्ट होगा।

 

इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की जन्म कुण्डली की आधार पर उस दिशा के स्वामी/देवता अथवा उस दोष को दूर करके ग्रह का भी उपाय सरलता से किया जा सकता है…..

वास्तु … दिशा व स्थान

॥श्री गणेशाय नमः॥

 

यदि जन्म स्थान* से वास्तु स्थान भिन्न है तो, वास्तु शास्त्र में सबसे पहले विचार इस बात का होता है कि जन्म स्थान से किस दिशा आप वास्तु निर्माण चाहते हैं? फिर दूसरी बात है वास्तु के स्थान (नगर, गाँव) का नाम** क्या है? इस दोनो बातों का अनुकूल होना अनिवार्य है।

वास्तु स्थान की दिशा व नाम के विचार के लिए ज्योतिष विद्या के वर्ग-चक्र का उपयोग किया जाता है। जन्म स्थान की दिशा से वास्तु स्थान की दिशा पाँचवीं हो तो अशुभ अन्यथा शुभ, इसी प्रकार नाम का विचार किया जाता है, पाँचवां वर्ग अशुभ होता है अन्य शुभ होते हैं।

पहले दिशाओं को जान लें-

 

दिशा-चक्र

दिशाओं के देवता व ग्रह इस प्रकार हैं­-

 

दिशा         देवता       ग्रह 

१. पूर्व             इन्द्र           सूर्य

२. आग्नेय         अग्निदेव         शुक्र

३. दक्षिण           यम           मंगल

४. नैर्ऋत्य         निर्ऋति          राहु-केतु

५. पश्चिम          वरुण           शनि

६. वायव्य          वायुदेव          चन्द्र

७. उत्तर          कुबेर+चन्द्र        बुध

८. ईशान           शंकर          बृहस्पति

जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा व नाम जानने के लिए ज्योतिष का वर्ग चक्र नीचे दिखाया जा रहा है-

अपना वर्ग विशेष शुभ, पाँचवां अशुभ तथा अन्य वर्ग सम होते हैं।

वर्ग-चक्र

(वर्गों में लिखे अंग इन वर्गों के ही हैं, आवश्यक स्थान पर चर्चा की जाएगी।)

जन्म और निवास का ग्राम एक ही हो तो नाम का विचार नहीं किया जाता। इसी प्रकार जन्म का स्थान तथा निवास का स्थान एक ही होने पर स्थान की दिशा का विचार भी नहीं करते। यदि जन्म और निवास का नगर एक ही हो मगर महौले दो हों तो महौले के नाम का विचार किया जाता है। जन्म और निवास के नगर भिन्न हों तो नगर के नाम का विचार होता है, महौल्ले के नाम का विचार नहीं करते।

अनिल नामक व्यक्ति किसी अन्य नगर/ग्राम से आकर दिल्ली में रह रहा है तो अशुभ है, क्योंकि “दिल्ली” तवर्ग (“अ” से पाँचवां वर्ग) है। वास्तु शुद्ध या शुभ होने पर भी यदि अनिल, ईश्वर, उमेश, ऐश्वर्या, ओंकार आदि अ वर्ग के परदेशी लोगों का निवास दिल्ली में हो तो अशुभ है। अ वर्ग के लोग यदि दिल्ली में ही जन्में है तो दिल्ली में रहने से दिल्ली के त वर्ग दोष नहीं लगेगा। लेकिन महौल्ला बदलना चाहते हैं तो दरियागंज उनके लिए अशुभ रहेगा। मगर उनका जन्म ही अगर दरियागंज में हुआ हो तो दरियागंज के त वर्ग के होने का दोष नहीं लगेगा।

इसी प्रकार अ वर्ग के व्यक्ति यदि अपने जन्म स्थान से पश्चिम में जाकर निवास करते हैं तो भी अशुभ है।

फिर से दोहराता हूँ-

१. विचारणीय वास्तु के नगर में न जन्मा जातक, नगर के नाम का विचार करेगा।

२. विचारणीय वास्तु के नगर में जन्मा जातक, नगर के नाम का विचार नहीं करेगा।

३. विचारणीय वास्तु के नगर में न जन्मा जातक, यदि महौल्ला बदल रहा है तो, विचारणीय वास्तु के महौल्ले के नाम का विचार करेगा।

४. जन्म और वास्तु का ग्राम एक ही हो तो वर्ग विचार नहीं करते, क्योंकि गाँव में महौल्ले नहीं होते।

५. यदि गाँव में शहर की तरह महौल्ले हों तो, (शहरों की तरह ही) महौल्ले बदलने पर वर्ग विचार होगा, अन्यथा नहीं।

६. जन्म स्थान से वास्तु स्थान की “दिशा” (वर्ग दिशा) का विचार ऊपर दी गई सभी स्थितियों में होगा।

वास्तु का स्थान यदि बदल रहा है, चाहे आप बगल की भूमि या मकान ही क्यों न खरीदें, वर्ग दिशा का विचार जरूरी है।

अपनी नाम राशि से वास्तु के नगर/ग्राम की राशि २री, ५वीं, ९वीं, १०वीं या ११वीं होना शुभ होता है।

इसके अतिरिक्त अन्य बहुत-सी पद्धतियां दिशा व स्थान के विचार करने की हैं। धन-ऋण (लाभ-हानि) का विचार भी वास्तु की दिशा व स्थान के नाम से होता है (वग्र-चक्र से)। यदि सब कुछ लिखने लगूं तो ये पहला अध्याय (वास्तु का तीसरा पेज) कभी समाप्त ही न हो। पेशेवर वास्तु शास्त्री के लिए यह सब विचार करना सरल है, क्योंकि उसे अभ्यास है। लेकिन जाल के पाठक गणों के लिए यह सब कष्ट-साध्य और उबाऊ होगा। इसलिए वास्तु विद्या के सभी खंडो (अध्याय) पर संक्षेप्त में ही लिखा जाएगा। अस्तु।

तो सबसे पहले ऊपर दी गई पद्धति से वास्तु के नगर का नाम और दिशा का विचार कर लें। तथा अनुकूल दिशा एवं स्थान में ही वास्तु प्राप्ति का प्रयत्न करें।

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*यहां जन्म स्थान से तात्पर्य पुश्तैनी घर या जन्म के समय परिवार के रहने का स्थान। हालांकि आजकल लगभग सभी लोग अस्पताल में ही जन्म लेते हैं, लेकिन यहां इस विषय में जन्म स्थान वह माना जाएगा जहां जन्म के तुरन्त बाद जातक का परिवार रह रहा था।

 

**वास्तु के लिए वर्ग विचार में स्थान और जातक के केवल पुकार का नाम ही ग्राह्य है।

वास्तु ,,, विषय प्रवेश

वास्तु शास्त्र में दिशाओं का बहुत महत्त्व है, लेकिन और बहुत-सी बातें हैं, जिनका विचार करना आवश्यक होता है।

 

१. जन्म स्थान से वास्तु स्थान भिन्न होने पर;

“जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा”।

 

२. जन्म स्थान से वास्तु का नगर/उपनगर/ग्राम भिन्न होने पर;

जन्म स्थान से वास्तु स्थान की दिशा व

“आपके पुकार के नाम से वास्तु के नगर/उपनगर/ग्राम का नाम”।

 

३. “भूमि की सतह”; भूमि कहां-कहां और किस-किस दिशा में ऊँची या नीची है।

 

४. भूमि का “गुण-धर्म”, रंग, रूप, गठन, गंध, स्वाद; वास्तु स्थान पर उगे हुए पेड़-पौधे।

 

५. वास्तु स्थान के “आस-पड़ोस का वातावरण”; नजदीक के तालाब, झरने, पहाड़, नदी और सार्वजनिक भवन। पड़ोसी और पड़ोस के मकान।

 

६. नजदीकी बस स्टॆंड या यातायात की सुविधा का स्थान व दिशा (“घर से निकलने पर आमतौर से किस दिशा में जाएंगे”)।

 

७. वास्तु का “वेध” करने वाली गली, पेड़, खंभे, अन्य इमारत इत्यादि।

 

८. वास्तु स्थान का “आकार”। “क्षेत्रफल”।

 

९. वास्तु स्थान की “दिशाएं व कोण” (ख़ासतौर से फ़्रंट साइड की दिशा)।

 

अब नम्बर आता है वास्तु के निर्माण का। वास्तु स्थान में भवन का स्थान; “मुख्य द्वार” (भवन का द्वार); भवन के अन्य द्वार; “चारदिवारी का द्वार”। फिर नम्बर आता है वास्तु के अन्दर कहां क्या होना चाहिए।

 

जब ऊपर लिखी सब बातों का विचार हो जाए तब भूमि खरीदने और भवन बनाने के “मुहुर्त” का विचार करना चाहिये।

 

यदि प्रयत्न करने पर भी वास्तु के लिए भूमि या मकान न मिल पा रही हो तो “भगवान् वाराह की अराधना-उपासना” करनी चाहिए।

 

दिशा निर्धारण बहुत सावधानी से करना चाहिए। अंदाजे से काम नहीं करना ठीक नहीं है, एक-एक अंश को महत्त्व देना चाहिए। सदैव दिशा-सूचक (कम्पास) का प्रयोग करना चाहिए। एक कम्पास पर विश्वास नहीं करना चाहिए, कम-से-कम दो कम्पासो से दिशा की परीक्षा करनी चाहिए। आमतौर से, स्थान विशेष पर कम्पास दिशाओं के अंश बताने में गलती करते हैं। यदि हो सके तो गूगल अर्थ से भी दिशाएं परख लनी चाहिएं।

 

इसके अतिरिक्त वास्तु-परीक्षा की अन्य बहुत-सी विधियां हैं, जिन्हें लिखकर बताना-समझाना संभव नहीं। वास्तु स्थान या भवन की कुछ विशेषताएं (वास्तु का भूत-भविष्य, भूमि के अन्दर का हाल, भूमि का जगा या सोया होना) केवल पराविद्या के द्वारा ही जानी जा सकती हैं। लेकिन वास्तु के वो गुण जो पराविद्या द्वारा जाने जाते हैं, कहीं न कहीं संकेत रूप में आम व्यक्ति के लिए भी अंकित होते हैं। इसलिए वास्तु की परीक्षा बहुत ध्यान से करनी चाहिए।

 

भूमि खरीदने पर और भवन बनाने के बाद शुद्धि आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इन दोनो समयों पर अनुष्ठान भी आवश्यक होते हैं। भूमि खरीदने से लेकर गृह-प्रवेश तक कई वैदिक अनुष्ठान अनिवार्य होते हैं। भवन निर्माण निर्विध्न पूरा होना चाहिए, यदि किसी कारण कुछ दिन के लिए निर्माण रुक गया हो तो फिर अनुष्ठान करके आरंभ करना चाहिए। निर्माण बीच में रोकना पड़े तो छत डाल कर ही रोकें, बिना छत की दीवारें खड़ी हों तो निर्माण कार्य नहीं रोकना चाहिए, ये बड़ा अनर्थकारी होता है। बिना छत के मकान का ऐसा फल है कि मैं लिखना से डरता हूँ।

 

गृह-प्रवेश के बाद भी जब कभी छोटी-बड़ी तोड़-फोड़ या मरम्मत मकान में हो तो वास्तु शान्ति अनिवार्य होती है।

पति प्राप्ति हेतु उपाय

विवाह की इच्छुक कन्या को मानस की निम्न पंक्तियों का पाठ करना चाहिए।

 

॥ श्री गणेशाय नमः ॥

 

॥ सियावर रामचन्द्र की जय ॥

 

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥

जय गज बदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥

 

दोहा –

पतिदेवता सुतीय महुँ  मातु प्रथम तव रेख।

महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥ २३५ ॥

 

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥

देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥

कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥

सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥

नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

 

छंन्द –

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

 

सोरठा –

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ २३६ ॥

॥ सियावर रामचन्द्र की जय ॥

ज्योतिष भाव-भावेश-कारक

फलादेश में सबसे अधिक महत्त्व “भाव-भावेश-कारक” का होता है। इन तीनों की तुलनात्मक समीक्षा के बाद ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिये।

 

भाव

कुण्डली के १२ घरों या खानों को “भाव” कहते हैं। यह बारह भाव हमारे जीवन और संसार की कारकों वस्तुओं को विभिन्न स्तरों पर बारह भागों में विभक्त करते हैं। जो ज्योतिषी इन कारक वस्तुओं को जितना अधिक जानता है, उतना अधिक सफल होता है। आगे समय मिलने पर इसी पृष्ठ पर भावों के प्रमुख-प्रमुख कारक लिखे जाएंगे।

 

राशियों की तरह भाव भी संख्या में १२ हैं, लेकिन यह भिन्न होते हैं। राशियां और भाव ३०-३० अंश के होने के पश्चात भी एक दूसरे से छोटे बड़े होते हैं। लग्न-भेद (स्थान-भेद) से ये छोटे-बड़े हो जाते हैं। भावों के छोटे-बड़े होने के कारण दशम-भाव-स्पष्ट (लग्न से 10वीं राशि का मध्य) कई बार नवम या एकादश भाव में पड़ जाता है।और, चलित में कई बार ग्रह एक नहीं दो भाव आगे-पीछे हो जाते हैं।

चित्र में जो संख्या लिखी गई है यह संख्या भावों की हैं, कुण्डली में इन्हें नहीं लिखा जाता। क्योंकि भाव अपने स्थान पर ही रहते हैं, इसलिए इनकी संख्या नहीं लिखी जाती। कुण्डली में जो संख्या लिखी हुई होती हैं, वह संख्या राशियों की होती हैं।

 

चित्र में लिखे शब्द भावों के नाम हैं, भावों को अन्य बहुत-से नामों से भी पुकारते हैं।

१. लग्न, विलग्न, होरा, कल्प, उदय, तनु, जन्म, प्रथम

२. धन, कुटुम्ब, अर्थ, संपत्ति, भुक्ति, वाक्, द्वितीय

३. पराक्रम, सहोदर, वीर्य, सहज, धैर्य, तृतीय

४. सुख, मातृ, बन्धु, पाताल, वृद्धि, चतुर्थ

५. सुत, देव, बुद्धि, विद्या, संतान, पंचम

६. रिपु, रोग, भय, क्षत, ऋण, षष्ठ

७. जाया, जामित्र, काम, सप्तम

८. रन्ध्र, मृत्यु, आयु, अष्टम

९. धर्म, भाग्य, शुभ, नवम

१०. कर्म, मान, पद, दशम

११. आय, लाभ, एकादश

१२. व्यय, द्वादश

 

भावेश

भाव विशेष में स्थित राशि का स्वामी ग्रह ही उस भाव का स्वामी होता है, जिसे भावेश कहते हैं।

आमतौर से…

१. प्रथम भाव के स्वामी को लग्नेश;

२. द्वितीय भाव के स्वामी को धनेश/द्वितीयेश;

३. तृतीय भाव के स्वामी को सहजेश/तृतीयेश;

४. चतुर्थ भाव के स्वामी को सुखेश/चतुर्थेश;

५. पंचम भाव के स्वामी को सुतेश/पंचमेश;

६. षष्ठ भाव के स्वामी को रोगेश/षष्ठेश;

७. सप्तम भाव के स्वामी को जायेश/सप्तमेश;

८. अष्टम भाव के स्वामी को रन्ध्रेश/अष्टमेश;

९. नवम भाव के स्वामी को भाग्येश/नवमेश;

१०. दशम भाव के स्वामी को कर्मेश/दशमेश;

११. एकादश भाव के स्वामी को आयेश/एकादशेश;

१२. द्वादश भाव के स्वामी को व्ययेश/द्वादशेश; कहते हैं।

भावेश, लग्न या अपने भाव से किस स्थान पर है? इसका फलादेश में बहुत महत्त्व होता है। फिर यह देखा जाता है कि भावेश किस राशि में है? किस ग्रह से युक्त या दृष्ट है? उदय/अस्त; वक्री/मार्गी; संधि; चर; अतिचर इत्यादि विभिन्न स्थितियों पर आधारित भावेश का बलाबल और अपने भाव को भावेश कतना सहयोग दे रहा है, इस बात का विचार होता है।

 

कारक (कारक ग्रह)

जिस प्रकार भावों के स्वामी ग्रह हैं, भावों के कारक ग्रह भी होते हैं। फलादेश में कारक ग्रहों का बहुत महत्त्व है। फलादेश के लिए “भाव भावेश कारक” इन तीनों का ज्ञान आवश्यक होता है। फलादेश करते समय- भाव की स्थिति तथा संबंध; भावेश की स्थिति तथा संबंध तथा कारक की स्थिति तथा संबंध का विचार किया जाता है।

भावों के कारक ग्रह –

(भाव के कारक ग्रहों पर ग्रंथो में कुछ मतभेद है।)

१- सूर्य

२- गुरु

३- मंगल

४- चन्द्र-बुध

५- गुरु

६- शनि-मंगल

७- शुक्र/गुरु (पुरुष जातक के लिए शुक्र तथा स्त्री के लिए गुरु)

८- शनि

९- गुरु-सूर्य

१०- शनि-बुध-सूर्य

११- गुरु

१२- शनि।

 

जैसे भावों में स्थित ग्रह, स्वामी ग्रह, कारक ग्रह, स्थित राशि भाव के फल को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार नैसर्गिक राशि भी प्रभावित करती है। यह नैसर्गिक राशि वही लाल किताब वाली राशि है, अर्थात् लगन चाहे कोई भी हो मेष का प्रभाव लगन पर जरूर रहेगा। इसी प्रकार दूसरे भाव पर वृषभ राशि का और तृतीय भाव पर मिथुन राशि का प्रभाव सदैव रहता है। और लाल किताब वाले सिद्धान्त की तरह भाव के कारक ग्रह, भाव के स्वामी ग्रह की तरह ही प्रभावित करते हैं। लाल किताब के ये दो मूल सिद्धान्त हमारे ग्रंथो के ही सिद्धान्त है, लेकिन ग्रंथ “कारक और नैसर्गिक राशि” का केवल २०-२५% प्रभाव मानते हैं, जबकि लाल किताब इनका पूरा प्रभाव मानता है।

 

पारंपरिक ज्योतिष विद्या में लग्न की राशि तथा चन्द्र की राशि का सबसे अधिक महत्त्व होता है, इसी से जातक के व्यक्तित्व- चरित्र का निर्धारण होता है। कारक और मारकेश ग्रहों की पहचान होती है; बिना लग्नेश के ज्योतिष की गाड़ी चल ही नहीं सकती। लेकिन लाल किताब के अनुसार लग्न की राशि (चन्द्र की राशि) का महत्त्व शून्य है, क्योंकि लग्न में सदैव और केवल “मेष” और लग्नेश सूर्य होता है। इसी कारण लाल किताब से व्यवस्थित, सुन्दर और लयबद्ध फलादेश नहीं हो सकता। लाल किताब से जातक की हालत कही जा सकती है; घटनाएं बताई जा सकती हैं; सवालों के जवाब दिये जा सकते हैं।

ज्योतिष पाया विचार

॥श्री गणेशाय नमः॥

ज्योतिष विद्या में पाया (जन्म के पैर) का विचार दो प्रकार से होता है। नक्षत्र एवं चन्द्र से, चन्द्र से पाया विचार स्थूल माना जाता है लेकिन यह अधिक प्रचलित और व्यवहार में है।

१. नक्षत्र से पाया विचार

सोने का पाया- २७. रेवती, १. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृत्तिका, ४. रोहणी या ५. मृगशिरा नक्षत्र में जन्म होने पर सोने के पैर होते हैं।

चाँदी का पाया- ६. आद्रा, ७. पुनर्वसु, ८. पुष्य, ९. आश्लेषा, १०. मघा, ११. पूर्वा फाल्गुनी, १२. उत्तरा फाल्गुनी, १३. हस्त, १४. चित्रा या १५. स्वाती नक्षत्र में जन्म होने पर चाँदी के पैर होते हैं।

ताम्बे का पाया- १६. विशाखा, १७. अनुराधा, १८. ज्येष्ठा, १९. मूल, २०. पूर्वा षाढा, २१. उत्तरा षाढा, २२. श्रवण २३. धनिष्ठा या २४. शतभिषा नक्षत्र में जन्म होने पर ताम्बे के पैर होते हैं।

लोहे का पाया- २५. पूर्वा भाद्रपद या २६. उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में जन्म होने पर लोहे के पैर होते हैं।

 

२. चन्द्र से पाया विचार

सोने का पाया- चन्द्र यदि लग्न, षष्ठ या एकादश भाव हो तो सोने के पैर होते हैं। (अत्यंत शुभ)

चाँदी का पाया- चन्द्र यदि द्वितीय, पंचम या नवम भाव हो तो चाँदी के पैर होते हैं। (शुभ)

ताम्बे का पाया- चन्द्र यदि तृतीय, सप्तम या दशम भाव हो तो ताम्बे के पैर होते हैं। (साधारण)

लोहे का पाया- चन्द्र यदि चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव हो तो लोहे के पैर होते हैं। (अशुभ)